Thursday, January 3, 2013

श्रद्धांजलि : मैं जीती थी









ख़ामोश थी रातें ,सूनी थी सडकें 
पर ...................
उस सन्नाटे को बेधने कोई न आया,
और अब मैं अखबार के पन्नों में ,
मन सोचता है ,

मेरे ख्वाबों की तदबीर अब सन्नाटे की चीखें !
मैं जीती थी अपने सपनों के लिए ,
सांस की हर आह पे मेरे सपने थे ,
जो माँ की आस और पिता की उम्मीद थे ,
जो मेरे अन्दर जीते थे .

सपनों से सजीले अरमान को ,
दरिंदों ने चकनाचूर कर दिया ,
मैं रोई , बिलखी , चिल्लाई , 
गिड़गिड़ाइ , छोड़ दो मुझे ,
अपने जिस्म के हर कतरे तक ,
मैंने जी तोड़ कोशिश की,
हाथ , दांत , नाखून तक ,
पर कुछ न कर सकी ,
 जी रही थी ।

सोच रही थी क्या हूँ मैं ?
मैं जिससे संसार का सृजन , वंश वृद्धि ,
वही स्त्री जो माँ दुर्गा , काली , सावित्री , लक्ष्मीबाई
और मैं बेबस लाचार ,
आँखें निर्निमेष थीं ,
अश्रु भी अब कराह व दर्द का साथ देने को तैयार न थे ,
बस थी तो मेरी सांसें ,
जो अब भी चल रही थीं ,
मैं जी रही थी ..................

 कोई न आया ,
मेरी पुकार किसी ने न सुनी ,
मैं लहूलुहान , 
किसी भी दर्द से परे,
हैवानियत और दरिंदगी का सुबूत,
सड़कों पे फिंकी हुई,
चील-कौवों द्वारा नुची लाश की तरह,
पर मैं जी रही थी ...........

रौशनी की किरण उगी ,
पर मैं तो थी ही नहीं ,
जिन्दा लाश ,
पर मैं जी रही थी ,
अब क्या महसूस कर रही थी,
वो तन मन से परे था,
बस दर्द और कराह  से ही रिश्ता जुड़ा था ।

लोगों की दुआओं में,
कैंडल की रौशनी में ,
जमाने की जुबां  पे ,
रेडियो टीवी की सनसनी खबर में ,
पुलिस केस में ,
कागज़ में ,
किसी के आंसुओं में ,
किसी के डर में ,
जी रही हूँ मैं ......

कि काश ! कोई वो खामोशी तोड़ देता,
तो आज मैं भी जीती थी ................