Friday, January 31, 2014

सपने


अरसों गढ़ा था जिसे ख्वाबों में
 आज तड़के पलक खुली तो 
सपने रूप गढ़ खड़े थे 
तभी इक हवा के झोंके ने नींद की वो तसबी तोड़ी 
दरवाजे पे आज  वैसे  किसी ख़ुशी ने 
मानो दस्तक दी थी 

इक ख़ामोशी , इक चुप्पी , इक  सन्नाटा था 
पता नहीं क्या था 
कि अब बस खुद में ही लिपटे रहने को जी चाहता है 
मंजर खो गया था 
पर तलाश अब भी जारी थी

शायद
खुद को भी अब दिन में सपने देखने की आदत सी लग गयी है

कोरे कागज़ भी जज्बातों के बवंडर से भरे दिखते हैं 
अब तो नज्म की रुसवाईयों से हर तरन्नुम भी  मेरी रूबरू है 
कभी न हो इतनी मोहब्बत कि तू खुद को खो दे 
जब नशा इसके जाम का उतरेगा 
तो ,
वक़्त ही तेरा होगा , न तू खुद ही अपना होगा 
ये नशा है जो कुछ भुलाता नहीं ,सब कुछ भुला देता है 
जो उतरता है तो नमी भरी जिंदगी बेख़ौफ़ दे जाता  है
पर दिल की हर कड़ी ने हर मोड़ पे अपनी दस्तक दी थी 

एक दस्तक 
जो कारवां  बदल सकता था  वो आशियाँ बदल सकता था 
पर  दिल की दस्तक के हाथों मजबूर था मैं



Thursday, January 30, 2014

विवाह


बहती हुई जिंदगी की लहरों में
मन को बांधे
बूंद बूंद सी रस्में कसमें
कच्चे धागे से
प्रीत के बंधन ये कितने पक्के
मिलन के ये यादगार पल प्रियवर
जब घूँघट के पट खोल इंतज़ार था सदी भर का
खुद को खोकर एक-दूजे में
बनते हैं नवयुगल जीवन रथ के दो पहिये
बस जाते हैं नयनों में अब दोनों के एक ही स्वप्न
है नींद नहीं तुम ही तुम मेरे ख्वाबों में
पूजा की थाली में
रोली अक्षत कुमकुम हो
तृषित दिया की
भूख प्यास औ घुटन
 मिटाते तुम
साँसों में बनकर गंध समाते तुम
यही है विवाह

दुल्हन


बिंदिया की चमक
आँखों में कसक
कँगने की खनक
रची हथेली की गमक
पायल की झनक
महावर की ललक को समेटे
साजो सिंगार के अरमान सजाये
उतरी है दुल्हन  इस शमा में
ढोलक की थाप
शहनाई की अनुगूंज
स्वरों की लहरी पे
अपनी मनमोहिनी नूपुर से 
ख्वाबों का मंजर बनने
आई है दुल्हन 
इक नई  जिंदगी में 
रखें हैं कदम 
सुनहरे सपनों के 
ख्वाबगाह में 

Thursday, January 23, 2014

अनकही



किससे कहूँ
क्या कहूँ,
क्या कोई अपना किसी के दर्द में कराहता नहीं,
उसके आँसू क्या उसे उद्वेलित नहीं करते,
क्या उसकी पीर-कराह से कोई सरोकार नहीं होता,

अपनी ही तलाश में हूँ मैं,
गुम हो गयी हूँ जिंदगी के इस नए पड़ाव में,
सवालों के कटघरे में अकेली मैं,
प्रश्नों की आग से झुलसती मैं,
आत्मलोचन से सुलगती मैं,
बातों के अंगारों से सिंकती मैं,
कुछ न कह पाने की पीड़ा में सुलगती मैं,
प्यार के दो लफ्ज के लिए तरसती मैं,
उस तबस्सुम को हटाते हाथों की गर्माहट को लरजती मैं,
आलिंगन-पाश में बंधने को सोचती मैं,
नब्ज़ की धुन सुनाने को रोती मैं

कभी अधूरी ख़्वाहिशों को बातों की इमारतों से ही सजाने को तरसती मैं,
कभी प्यार भरी थपकी पाने को लरजती मैं,
कभी अनकही पूरे होने की आस में सिसकती मैं।