Tuesday, February 25, 2014

वायु-संगिनी -एक त्याग एक अभिमान

कई बरस पहले 
उड़ते देखा था, मशीनी परिंदों को,
उस नीले आसमां में
यूं कलाबाज़ियाँ करते, उलटते ,पलटते
वो तेज गड़गड़ाहट,
जो बस जाते कानों में 
और ये परिंदे 
चंद पलों में आँखों से ओझल हो जाते 
सोचती थी, कौन होगा ? कैसा होगा ?
वो इंसान, उस लड़ाकू विमान में ।

क्या पता था कि, 
किस्मत मुझे ले आएगी, उसी परिंदे के पास
इक डोर जुड़ जाएगी इस परिंदे से
वो आवाज़ जो बचपन से सुनी
बन जाएगी मेरे जीवन का अंश 
वो आसमां का बासिन्दा
बन जाएगा मेरा सर्वांश।

भोर की पहली किरण के साथ
निकल पड़ते हैं आशियाने से
कर्म करने 
स्क्वाड्रन के लिए,
हर सुबह हो जैसे 
तैयारी रण की
निकलती है टोलियाँ इन परिंदों की
अपने अभियान पर
एयर डिफ़ेंस , स्ट्राइक मिशन , 
एयर कॉमबैट , इंटर्डिकशन
जाने क्या नाम ,जाने क्या काम !
इन्हीं अभियानों में सुबह से लेकर शाम  
जिंदगी की चहल पहल से दूर
अपनी ही धुन में मस्त 
आसमानी जिंदगी ।

चाँदनी रातों में भी अक्सर तन्हा होते हम
जज़्बातों में, ख्वाबों में, 
तसवीरों में, ख्यालों में 
अकेले गढ़ते सपने हम,
अधूरी ख्वाहिशें , अधूरे हम 
पर !
उन पूनम रातों में 
चाँदनी की लहरों पे सवार
ये परिंदे 
गढ़ते युद्ध-कौशल। 

लौट के घर आने पर 
उनींदी आँखों से देख खिलता चेहरा इनका
रात की तपिश हो जाती गुम
इस अभिमान में कि 
हम भी हैं साथ देश की रक्षा में 
वायु-संगिनी बन कर ।


















Sunday, February 23, 2014

सिद्दत



सीने में उफनते सैलाब को
मंजर दे दिया
दहकते ख्वाबों को मैंने 
आशियाँ दे दिया


जो बुझ चुके थे,
न जलने के लिए कभी 
उनमें आशा की लौ लगा ही दी तूने
परचम को नया तसव्वुर
व नयी मंजरों की राह जगा भी दी तूने।


तू वो गुलिस्ताँ है 
जो चमन में रौनक लाता है
तू वो जाम है 
जो छोड़े न छूटता है 


तेरी कसम 
तेरी राहों में जां बिछा देंगे
पर क्या करें तेरी नजरें निगाहें 
तो ढूंढती हैं हर रोज़ नया आशियाँ ।


आवाज़ दी तूने तो 
आगाज़ बन गए सितारे,
सिद्दत की जो तूने 
हम  बन गए तुम्हारे ।


तूने छूआ तो सिहर सी गयी मैं
तूने देखा तो पिघल सी गयी मैं ।


हवाओं में भरी उड़ान तो परिंदे भी साथी बने
अब तो आकाश भी तेरे आने की राह तकता है
तुझे अपना ही हमकदम
अपने ही चमन का रौनक मान बैठा है ।


दो जहां के तख्तो-ताज का मालिक है तू,
ये रुपये-पैसे की नहीं , तेरी !
अपनी कमाई इबादत है ।






Friday, February 21, 2014

असल परिंदे



फैलाकर पंख आसमाँ को छूना चाहा था,क्या पता था ?
कि वो छुटकेपन की झीनी बुनावट इतनी गहरी होगी  ,
कि बन गया एक दिन मैं नीली वर्दी वालों का दल ,


हवाओं को चीरते , बादलों के संग गुनगुनाते ,
बिजली की गर्जन से भी तेज ,आसमाँ की हुंकार से अनुगूँज करते,
नीले आसमाँ को अपनी ही वर्दी का अंश माने ............
कल कल कल निनाद करते, भोर की चहचहाहट को बेधते ,
आते सूर्य की लालिमा के साथ हवा मे तैरने को उद्विग्न कौन मैं
वही मैं ,फैलाकर पंख आसमाँ.....................................


रात के सन्नाटे में भी कालिमा के साथ होकर ...
तारों की चाँदनी को समेट कर ,
अनवरत लगातार –लगातार
चक्कर काटता ,कौन मैं ?
वही मैं , फैलाकर पंख आसमाँ.............
ऊपर से देखूँ तो,
खामोशी की चादर ओढ़े सुबकते लोग
मैं अकेला आकाश की चिरन्तता को बेंधता .................
माँ का लाड़ला ,उसकी साँसें और मेरी साँसें-मेरा लाल
उड़ता हूँ,  छूता हूँ , आसमाँ की बुलंदियाँ ,
पर मैं भी इंसा हूँ ,धड़कता है मेरा दिल भी ,
जज़्बात हैं , ख्वाब हैं ,मंजर हैं ,आशियाँ है ,
जब उठते हैं हाथ तो,
फक्र से जाता है सीना तन ,
हथेली पे लिया फिरता हूँ ,
जान ! ऐ वतन तेरे लिए
अपने इस परिंदे को सदा रखना ,

रोशनी के आसबाब में ।

Friday, February 14, 2014

आरजू थी मेरी

तुम्हीं से साँसे जुड़ी जब
हवाओं ने करवट बदली
फिज़ाओं में रंग आया
आँखों ने सपने बुने
लफ्जों एहसास में जज़्ब हुए
चाहत ने रंगत दी हुस्न को
बेकरारियों ने तुझे समझने की हसरत दी
वो क्या था?
की जो एक मुस्कान ने
पलट कर रख दी
मेरी नब्ज़ की हलचल को
आरज़ू बदल गयी लम्हों में....

जुस्तजूँ थी तो बस तुम्हें टटोलने की
तुम्हारे निगेबान के अंजुमन को जानने की 
अनकही आँखों में डबडबाई शबनम की तपिश को
उस छांह को समझने की
उस आह को बुझने की
जिसे मेरी रूह ने महसूस किया था
बड़ी बेतरतीबी से उन पन्नों को पलटने की चाहत थी
जो बंद थे दरख्तों की दरारों में
उन्हें कुरेदने और इस मसोस को
तेरी आँखों से हटाने की आरज़ू थी मेरी
तमन्ना थी 
निशा की हर लौ से
तेरे चेहरे की खामोशी पर रंगत भरने की चाहत थी

करीब आते हैं आज इंसान हैसियत से
मैं तो कायल थी आपके जिंदगी जीने के नज़रिये से
चाहा तो बहुत कि तेरे पैमाने में ढाल जाऊँ
अश्क की तरह तेरे कलेजे में छुप जाऊँ
भरी बरसात के गरज की तरह तेरे सीने से लिपट जाऊँ
फूलों के गंध की तरह तुझमें ही खो जाऊँ
पर हो न सका
हर अंश में अपना नाम न कर पायी
विश्वास की एक थाप तेरी नज़रों में बना न पायी
फिर भी चाहत तो विश्वास करने का नाम है

वो क्या था
जो मुझे तुझमें घोले जा रहा था
अपना न रह पाने की कौन सी कुव्वत 
तुझमें सिमटती जा रही थी
न चाह के भी तेरे साये में सिमटती लिपटती जा रही थी
खुद से दूर तेरी ही आलिंगन पाश में
तेरी ही खुशबू में पगने को, ढलने को
तेरे ही साँचे में तपने को तैयार मैं
बिना तेरे दरवाजे पे दस्तक दिये 
मैं बाँहें पसारे बस तेरे इंतज़ार में...................