Friday, November 14, 2014

जज़्बात

[13/11 01:06] Jigyasa Singh: कुछ लब्ज़ नहीँ थे. जज़्बात बयां करने के लिये,
तूनेे जो दी दस्तक. हरक़तों का जलजला उमड पडा
[13/11 01:14] Jigyasa Singh: कुछ पास होके भी न था,कुछ दूर होके भी रग-रग में समाया था....
ये मेरी नजरों का भरम था, या तेरे संग ग़ुफ़्तगू के उन लम्हों का इल्म था
[13/11 01:19] Jigyasa Singh: हम जिनके जितने करीब थे,,,,फासले कदम दर कदम बढ़ते से गये...
वक़्त ने ली ऐसी करवट...हम कब "उन"ग़ैरों की कतार में शामिल हो गये
[13/11 01:22] Jigyasa Singh: अश्क गिरते है तो गिर जाने दो...इनका वजूद ही गिरने के लिए
जख्म आते हैं तो लग जाने दो....ये तो लगते ही भर जाने के लिए
[13/11 01:29] Jigyasa Singh: कुछ घाव नश्तर की तरह चुभते हैं, तीली की तरह सुलगते है
न जी भर के जलने ही देते हैं, न ही बुझ जाने की इजाज़त है
ये तआरुफ़ है उनका "ये आग का दरिया है.........
.....

बचपन

वो बचपन के किस्से,  वो राजा रानी
वो पानी के छपाके , वो दादी की कहानी
वो परियों के सपने, वो सुपर मैन की लाल चड्ढ़ी
वो पल में हंसी की फुहार,तो पल में बारिश आंसू की
वो लड़ना -झगड़ना, वो रूठना-मनाना,
वो पंख लगाकर उड़ने के सपने ,वो घरोंदे की ख़ुशी
वो   हंसी के ठहाके, वो टीचर की मिमिक्री
हा हा .........
वो जीत की खुशी और हार की सुबकियां,,
चलो आज फिर वो पीपल की छांव ,झूले की मस्ती में ,
बिताते है कुछेक पल,नटखट,मासूम बचपने के नाम। ।

Wednesday, November 12, 2014

वजूद

यूँ लगने लगा था की मै हूँ क्योँ ,क्या वजूद है मेरा,
बुझी-बुझी सी मैं , सहमी सी मैं, बंद कली सा मन
भोर की पहली अरूणिमा में .उस मिलन की लालिमा को लरजता सा मन
तपती धूप में इक छाँव को ढूँढता-निहारता -  तरसता सा मन
हवा की अठखेलियों में संग गुनगुनाने को रोता सा मन
साँझ की तरूणाई में सिमट कर इक हो जाने का मन
रात की ख़ामोशी ,सन्नाटे में तुझमें ही ग़ुम होने का मन
कहाँ हो,................
................बंद तसीवरो में. मेरे जेहन में, मेरे लब्जो में ,
दीवारों में, दरख्तो में ,मेरी हर नब्ज़ में,चलते-फिरते मेरे हर अश्क़ में

मै तो बची थी ,जिन्दा लाश में, मैं तो न जाने कब से तुम हो गयी
पता ही न चला की कब, तो तुमने मुझे खुद में पिघला लिया............
अब कहाँ हूँ मैं...........
ऐ खुदा मुझे भी जज्ब कर....... इन साँसों को छीन ले ......
मुझे मेरी जिंदगी में घुला दे.......