Wednesday, November 12, 2014

वजूद

यूँ लगने लगा था की मै हूँ क्योँ ,क्या वजूद है मेरा,
बुझी-बुझी सी मैं , सहमी सी मैं, बंद कली सा मन
भोर की पहली अरूणिमा में .उस मिलन की लालिमा को लरजता सा मन
तपती धूप में इक छाँव को ढूँढता-निहारता -  तरसता सा मन
हवा की अठखेलियों में संग गुनगुनाने को रोता सा मन
साँझ की तरूणाई में सिमट कर इक हो जाने का मन
रात की ख़ामोशी ,सन्नाटे में तुझमें ही ग़ुम होने का मन
कहाँ हो,................
................बंद तसीवरो में. मेरे जेहन में, मेरे लब्जो में ,
दीवारों में, दरख्तो में ,मेरी हर नब्ज़ में,चलते-फिरते मेरे हर अश्क़ में

मै तो बची थी ,जिन्दा लाश में, मैं तो न जाने कब से तुम हो गयी
पता ही न चला की कब, तो तुमने मुझे खुद में पिघला लिया............
अब कहाँ हूँ मैं...........
ऐ खुदा मुझे भी जज्ब कर....... इन साँसों को छीन ले ......
मुझे मेरी जिंदगी में घुला दे.......

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