Friday, September 18, 2015

जिज्ञासा की कुछ रचनाएँ: एक रैंक एक पेंशन : एक सैनिंक का दर्द

जिज्ञासा की कुछ रचनाएँ: एक रैंक एक पेंशन : एक सैनिंक का दर्द: खून से लथपथ भीगा बदन जब , तिरंगा ओढ़ के आता है द्धार , तब लफ़्ज़ों की बौछारें , तमगों  की बिसातें,  अखबार ...

Wednesday, September 16, 2015

एक रैंक एक पेंशन : आवाम की अनुगूँज का शंखनाद

एक रैंक एक पेंशन : आवाम की अनुगूँज का शंखनाद 

चुना था तुझे बड़े भरोसे से 
भारत मां का तिलक जानकर 
कुछ बात थी तेरी आवाज़ में 
कि चट्टानों में भी दरार आ जाती 
लोगों ने कहा तानाशाह पर 
हमें अब भी भरोसा है 
कि वो घंटों निरंतर अचूक बोलने वाला 
इस दर्द की टीस को जरूर समझेगा
अपना राजधर्म जरूर निभायेगा। 

तेरी हर पुकार पर ये तत्पर 
हो नेपाल हो या यमन 
कहीं आपदा कहीं विपदा 
हर जगह ...... 
न दिन का चैन देखा 
न रात का सकून 
न आती गोलियां देखीं 
न देखे आते बॉम्ब 


कभी पिघलते ठिठुरते हाथों में 
बन्दूक थामे ऐ वतन  !
कभी भूख से अंतड़िया मुरमरायीं 
तब भी ऐ वतन !
कभी किसी अंग से रक्त का सैलाब उमड़ा 
तो कफ़न बांधकर ऐ वतन !
कभी किसी साथी को 
पीठ पर उठाकर ऐ वतन !
कभी खुद को ही पुल बनाकर 
ज़िंदगियाँ बचा कर ऐ वतन !
हिमालय की गोद में , बिना ऑक्सीजन मास्क के 
उड़ानें भरी तो ऐ वतन !
जान की बाज़ी लगा कर उड़ानें भरी 
तो ऐ वतन !
हवा में कब्रगाह बनी  
तब भी बस ऐ वतन !
सागर की अथाह लहरों में महीनों 
गश्त लगाया ऐ वतन !
हर खोते साथी के साथ करते मजबूत 
हौसला ऐ वतन !
आँखों में आये दरिया को 
दरख़्त बनाया ऐ वतन !


अपनी धरती को हमेशा माँ समझा और 
सबको उसका लाल ,
और हमने आपने क्या किया ?
उस जवान को सवालों और जवाबों की भट्ठी में झोंक दिया। 

क्या गुनाह है , अपनी माँ की रक्षा करना ?
बाकी सब ग्रुप 'अ' में समाहित ,
बाकी सब को एक सा सम्मान, एक सा अधिकार ,
एन एफ यु , बैकडोर ओ आर ओ पी ,
आखिर सैनिकों से ये अलगाव क्यों ?

साल दर साल 
हर पे - कमीशन में दुराव 
न कुछ बोलने का अधिकार 
और कुछ बोलें तो जलालत भरी नजरें झेलें 
क्या सैनिक बनना गुनाह है ?
सेना के मान सम्मान में हनन ,
क्या ये जायज़ है ?

हिकारत 
मौत का साया 
परिवार का दर्द 
और न जाने क्या क्या …
और जब रिटायर हों 
तो अपने जीवन यापन को तरसें !

प्रश्न है हम सबसे 
जिसने अपनी जिंदगी का सबसे बहुमूल्य वक़्त 
हमारी सुरक्षा में अर्पित कर दिया 
क्या हम उसे, उसके परिवार को एक सुखी 
और उचित जिंदगी नहीं दे सकते ?
सेना को जवान रखने के लिए,
युद्धोपयुक्त रखने के लिए 
जिन्हें सेवानिवृत्त कर दिया 
क्या उन्हें हम उनका अधिकार पेंशन नहीं दे सकते ?


आज वक़्त आ गया है कि 
आवाम अपनी अनुगूँज का शंखनाद करे 
हम सब चैन की सांस तब लेते हैं 
जब हममें से किसी का बेटा , किसी का पति 
किसी का पिता , किसी का भाई 
पुरे रात-दिन जागता है ,
वतन की रखवाली करता है। 

जरुरत है आवाम के आगाज़ की ,
किसी ने खिड़कियां बंद की हैं 
कहीं से हज़ारों दरवाज़े खुल जाते हैं 
आवाम की अनुगूंज का शंखनाद   । 






एक रैंक एक पेंशन : एक सैनिंक का दर्द














खून से लथपथ भीगा बदन जब ,
तिरंगा ओढ़ के आता है द्धार ,
तब लफ़्ज़ों की बौछारें , तमगों  की बिसातें, 
अखबार की सुर्ख़ियों में, गली गली 
नुक्कड़ चाय से लेकर  सितारों तक 
तेरी ही गुफ्तगू 
स्कूल से लेकर हमारी सोच की हदों तक ,
 भाव भीनी श्रद्धांजलि       …… . 

क्या है ये सब ?
दिखावा ? ढकोसला ?
उस बूढी माँ  की कोख को तिलांजलि !
या उस बेवा की बेरंग जिंदगी को झूठी तसल्ली !
भोली मासूम आँखों वाले बच्चे के सामने इक झूठी मिसाल ?

क्या माँगा है इन वृद्ध अवकाशप्राप्त योद्धाओं ने ?
एक रैंक एक पेंशन  …  


क्या हैं हम ?
क्यों हैं हम  ?
कैसे चैन से सांसें चल रही हैं हमारी 
कौन है वो जो रातों की नींद गंवाकर ,
बियावान सन्नाटे को चीरकर ,
हमें सुकून की जिंदगी दे रहा है ,
जब वक़्त है उसके भी जीने का, 
अपने सपने पूरे करने का, 
अठरह बरस की कच्ची उम्र में हमारा प्रहरी बन बैठा है 
हमारे लिए जब वो रक्त से अभिभूत है उन रातों का,
उन अधूरे सपनों का ,
क्या हम कोई मोल लगा सकते हैं ?
नहीं। .... 

हफ्ते की थकान पर वीकेंड मनाते हम ,
और वो अनवरत अपनी ड्यूटी पर.... 
हमें खुला आसमां देने के वास्ते। 
अपने सुनहले जज़्बातों को कड़ी रंजिशों में जलाने के बाद,
जब वो घर लौटे तो हाथ में तसल्ली के भरोसे तो, नैया पार नहीं लगती। 

उसका  कतरा कतरा वसूल जाने पर भी संतोष और सुकून नहीं ,
सिर्फ २६ जनवरी और १५ अगस्त ही क्योँ,
सिर्फ बाढ़ और हाईजैक ही क्यों ,
आतंक का एक कहर बरपा नहीं कि सेना ,
दंगे-फसाद हुए नहीं कि सेना,
बच्चा बोरवेल में गिरा नहीं कि सेना,
बूम की एक आवाज़ चहारदीवारी में सिमटा देती है हमें 
और वो हर रोज़ मौत का कफ़न बाँध घूम रहा है ,
कहीं सीमा पर 
कहीं अपने लड़ाकू विमान पर 
कहीं युद्धपोत पर ,
वो लालची क्यों और  कैसे ?

प्रश्न है आपसे हमसे ?
एक क्षण उनकी जिंदगी को आसबाब  करके देखो,
उन दिनों और उन लम्हों का एक जर्रा भी लौटा सकते हो क्या ?
उस बेवा का सुहाग लौटा सकते हो क्या ?
उस बच्चे का आदर्श लौटा सकते हो क्या ?
उस वृद्ध योद्धा का यौवन लौटा सकते हो  क्या  ?


मेरे शब्दों और पन्नों की बिसात नहीं 
कि उस चुभन और दर्द को उकेर सकूँ। 
बस राख ही जानता है जलने का दर्द 
तीलियाँ ही जानतीं हैं सुलगने की सज़ा। 


१९४७ से आजतक पतन और हनन होता रहा सेना के मान का , सम्मान  का  ,
सरकार और लाल-फीताशाही में उलझ चुकी है देशभक्ति। 
भारत वर्ष में कभी राजा सेना का नेतृत्व करता था 
राजा खुद एक योद्धा था 
अब न तो राजा योद्धा है 
और न ही योद्धा का सम्मान है। 

कैसी सियासत , कैसी कौम 
जो देश के जवानों पर 
उनकी जिंदगियों और सपनों की कीमत पर भी 
सवाल और पैबंद लगा रही है 
हज़ारों करोड़  की संपत्ति गुजरात में सुलग गयी 
कोई प्रश्न नहीं ,
पर जहाँ सामर्थ्यवान होकर भी 
अनुशासन, सत्ता का मान रखते हुए 
उपवास रखकर अपनी बात कही जा रही है तो 
सरोकार ही नहीं। 

और ये मुल्क ,
जो हर बात पे और मुल्कों की बातें किया  करता है  ,उदारहण लिया करता है ,
जब बात आई वेटरन्स की 
वो खामोश है
हर तरफ सन्नाटा है 
अरे यहाँ भी दुसरे मुल्कों से ही सीख लें हम 
कि वेटरन्स का सम्मान कैसे होता है। 

अरे हमवतन साथियों 
जागो 
उठो 
साथ दो उन वेटरन्स का 
उन महा योद्धाओं का 
रामायण महाभारत तो बस कहानियां हैं 
राम  अर्जुन तो बस कल्पित पात्र हैं ,
ये तो हमारी हकीकत हैं , हमारा यथार्थ हैं। 

उनका गुजरे कल ने हमें ये आज दिया है
जिंदगी में हमारे ये साज़ो साज़ दिया है 
अब वक़्त है कि कुछ हम करें उनके लिए 
कि उनकी आँखों में जल पड़ें  उम्मीद के दीये
कि जिनकी सुरक्षा में उन्होनें किया जीवन अर्पण 
कम से कम उन्होंने तो समझ उनका दर्द।