Wednesday, September 16, 2015

एक रैंक एक पेंशन : एक सैनिंक का दर्द














खून से लथपथ भीगा बदन जब ,
तिरंगा ओढ़ के आता है द्धार ,
तब लफ़्ज़ों की बौछारें , तमगों  की बिसातें, 
अखबार की सुर्ख़ियों में, गली गली 
नुक्कड़ चाय से लेकर  सितारों तक 
तेरी ही गुफ्तगू 
स्कूल से लेकर हमारी सोच की हदों तक ,
 भाव भीनी श्रद्धांजलि       …… . 

क्या है ये सब ?
दिखावा ? ढकोसला ?
उस बूढी माँ  की कोख को तिलांजलि !
या उस बेवा की बेरंग जिंदगी को झूठी तसल्ली !
भोली मासूम आँखों वाले बच्चे के सामने इक झूठी मिसाल ?

क्या माँगा है इन वृद्ध अवकाशप्राप्त योद्धाओं ने ?
एक रैंक एक पेंशन  …  


क्या हैं हम ?
क्यों हैं हम  ?
कैसे चैन से सांसें चल रही हैं हमारी 
कौन है वो जो रातों की नींद गंवाकर ,
बियावान सन्नाटे को चीरकर ,
हमें सुकून की जिंदगी दे रहा है ,
जब वक़्त है उसके भी जीने का, 
अपने सपने पूरे करने का, 
अठरह बरस की कच्ची उम्र में हमारा प्रहरी बन बैठा है 
हमारे लिए जब वो रक्त से अभिभूत है उन रातों का,
उन अधूरे सपनों का ,
क्या हम कोई मोल लगा सकते हैं ?
नहीं। .... 

हफ्ते की थकान पर वीकेंड मनाते हम ,
और वो अनवरत अपनी ड्यूटी पर.... 
हमें खुला आसमां देने के वास्ते। 
अपने सुनहले जज़्बातों को कड़ी रंजिशों में जलाने के बाद,
जब वो घर लौटे तो हाथ में तसल्ली के भरोसे तो, नैया पार नहीं लगती। 

उसका  कतरा कतरा वसूल जाने पर भी संतोष और सुकून नहीं ,
सिर्फ २६ जनवरी और १५ अगस्त ही क्योँ,
सिर्फ बाढ़ और हाईजैक ही क्यों ,
आतंक का एक कहर बरपा नहीं कि सेना ,
दंगे-फसाद हुए नहीं कि सेना,
बच्चा बोरवेल में गिरा नहीं कि सेना,
बूम की एक आवाज़ चहारदीवारी में सिमटा देती है हमें 
और वो हर रोज़ मौत का कफ़न बाँध घूम रहा है ,
कहीं सीमा पर 
कहीं अपने लड़ाकू विमान पर 
कहीं युद्धपोत पर ,
वो लालची क्यों और  कैसे ?

प्रश्न है आपसे हमसे ?
एक क्षण उनकी जिंदगी को आसबाब  करके देखो,
उन दिनों और उन लम्हों का एक जर्रा भी लौटा सकते हो क्या ?
उस बेवा का सुहाग लौटा सकते हो क्या ?
उस बच्चे का आदर्श लौटा सकते हो क्या ?
उस वृद्ध योद्धा का यौवन लौटा सकते हो  क्या  ?


मेरे शब्दों और पन्नों की बिसात नहीं 
कि उस चुभन और दर्द को उकेर सकूँ। 
बस राख ही जानता है जलने का दर्द 
तीलियाँ ही जानतीं हैं सुलगने की सज़ा। 


१९४७ से आजतक पतन और हनन होता रहा सेना के मान का , सम्मान  का  ,
सरकार और लाल-फीताशाही में उलझ चुकी है देशभक्ति। 
भारत वर्ष में कभी राजा सेना का नेतृत्व करता था 
राजा खुद एक योद्धा था 
अब न तो राजा योद्धा है 
और न ही योद्धा का सम्मान है। 

कैसी सियासत , कैसी कौम 
जो देश के जवानों पर 
उनकी जिंदगियों और सपनों की कीमत पर भी 
सवाल और पैबंद लगा रही है 
हज़ारों करोड़  की संपत्ति गुजरात में सुलग गयी 
कोई प्रश्न नहीं ,
पर जहाँ सामर्थ्यवान होकर भी 
अनुशासन, सत्ता का मान रखते हुए 
उपवास रखकर अपनी बात कही जा रही है तो 
सरोकार ही नहीं। 

और ये मुल्क ,
जो हर बात पे और मुल्कों की बातें किया  करता है  ,उदारहण लिया करता है ,
जब बात आई वेटरन्स की 
वो खामोश है
हर तरफ सन्नाटा है 
अरे यहाँ भी दुसरे मुल्कों से ही सीख लें हम 
कि वेटरन्स का सम्मान कैसे होता है। 

अरे हमवतन साथियों 
जागो 
उठो 
साथ दो उन वेटरन्स का 
उन महा योद्धाओं का 
रामायण महाभारत तो बस कहानियां हैं 
राम  अर्जुन तो बस कल्पित पात्र हैं ,
ये तो हमारी हकीकत हैं , हमारा यथार्थ हैं। 

उनका गुजरे कल ने हमें ये आज दिया है
जिंदगी में हमारे ये साज़ो साज़ दिया है 
अब वक़्त है कि कुछ हम करें उनके लिए 
कि उनकी आँखों में जल पड़ें  उम्मीद के दीये
कि जिनकी सुरक्षा में उन्होनें किया जीवन अर्पण 
कम से कम उन्होंने तो समझ उनका दर्द। 














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