Friday, February 21, 2014

असल परिंदे



फैलाकर पंख आसमाँ को छूना चाहा था,क्या पता था ?
कि वो छुटकेपन की झीनी बुनावट इतनी गहरी होगी  ,
कि बन गया एक दिन मैं नीली वर्दी वालों का दल ,


हवाओं को चीरते , बादलों के संग गुनगुनाते ,
बिजली की गर्जन से भी तेज ,आसमाँ की हुंकार से अनुगूँज करते,
नीले आसमाँ को अपनी ही वर्दी का अंश माने ............
कल कल कल निनाद करते, भोर की चहचहाहट को बेधते ,
आते सूर्य की लालिमा के साथ हवा मे तैरने को उद्विग्न कौन मैं
वही मैं ,फैलाकर पंख आसमाँ.....................................


रात के सन्नाटे में भी कालिमा के साथ होकर ...
तारों की चाँदनी को समेट कर ,
अनवरत लगातार –लगातार
चक्कर काटता ,कौन मैं ?
वही मैं , फैलाकर पंख आसमाँ.............
ऊपर से देखूँ तो,
खामोशी की चादर ओढ़े सुबकते लोग
मैं अकेला आकाश की चिरन्तता को बेंधता .................
माँ का लाड़ला ,उसकी साँसें और मेरी साँसें-मेरा लाल
उड़ता हूँ,  छूता हूँ , आसमाँ की बुलंदियाँ ,
पर मैं भी इंसा हूँ ,धड़कता है मेरा दिल भी ,
जज़्बात हैं , ख्वाब हैं ,मंजर हैं ,आशियाँ है ,
जब उठते हैं हाथ तो,
फक्र से जाता है सीना तन ,
हथेली पे लिया फिरता हूँ ,
जान ! ऐ वतन तेरे लिए
अपने इस परिंदे को सदा रखना ,

रोशनी के आसबाब में ।

1 comment:

  1. Very nicely you have put in words the feelings of an aviator........ nice...

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