Thursday, January 23, 2014

अनकही



किससे कहूँ
क्या कहूँ,
क्या कोई अपना किसी के दर्द में कराहता नहीं,
उसके आँसू क्या उसे उद्वेलित नहीं करते,
क्या उसकी पीर-कराह से कोई सरोकार नहीं होता,

अपनी ही तलाश में हूँ मैं,
गुम हो गयी हूँ जिंदगी के इस नए पड़ाव में,
सवालों के कटघरे में अकेली मैं,
प्रश्नों की आग से झुलसती मैं,
आत्मलोचन से सुलगती मैं,
बातों के अंगारों से सिंकती मैं,
कुछ न कह पाने की पीड़ा में सुलगती मैं,
प्यार के दो लफ्ज के लिए तरसती मैं,
उस तबस्सुम को हटाते हाथों की गर्माहट को लरजती मैं,
आलिंगन-पाश में बंधने को सोचती मैं,
नब्ज़ की धुन सुनाने को रोती मैं

कभी अधूरी ख़्वाहिशों को बातों की इमारतों से ही सजाने को तरसती मैं,
कभी प्यार भरी थपकी पाने को लरजती मैं,
कभी अनकही पूरे होने की आस में सिसकती मैं। 


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