Thursday, March 6, 2014

घुटता बचपन

सुनहरा समय , बचपन की हंसी-बीती,
कॉपी-किताबों से तनिक न दोस्ती,
सरोकार है तो होटेल और घरों के बर्तनों से,
औजारों, उद्योगों, झाड़ू और पोंछे से,
केवल ऊंची बिल्डिगों वाले शहर में ही नहीं ,
गली-कूचों में भी हैं कई पप्पू-मुन्नी छोटू-चवन्नी,
अपनी मजबूरी का शिकार,बचपन से अंजान,
ज़िम्मेदारी का बोझ ,पेट की भूख से बदहाल,
कहीं ब्रांडेड कपड़े और भोग छप्पन,
कहीं जीवन भर उतरन और जूठन,
कहीं भविष्य के लिए आसमान में जाने के सपने,
कहीं हाथों में घाव और आँखों में नमी लिए अपने,
फटे चिथे कपड़े और नंगे पाँव,
घंटों लगातार फैक्ट्री के धुँए-आँच की तपिश सहते,
कोमल, मासूम बच्चे सहते इस संसार में होने का दंश,
इस कालिमा को भविष्य के कलंक को पोंछना है ।

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