Sunday, September 25, 2011

लड़की



लड़की जीती है एक खामोश जिंदगी ,
पैरों तले रौंदती है सपनों को ,
सोचती है , बुनती है
पर ,
खामोश रहती है...........

क्यों रौंदा सपनों को,
किसी ने कहा,
कांच सरीखा नाजुक जीवन ,
दरक जाएगा ,
किसी ने कहा ,
पढेगी तो
पंख लगा उड़ जायेगी ,
कहते....... 
चूल्हा चौका माँ बहन बेटी 
और न जाने कितनी उपमाएं ,
सुनती है
और उलझती ही जाती है
कहाँ हूँ मैं ?
क्या मैं " Save Girl Child" हूँ ?
सच है कि
लड़की सिर्फ संजोई ही जाती है
शीर्ष पे  कहीं भी जाए
पर ये ख़ामोशी भरी उलझन
नम आँखें और मुस्कुराता चेहरा
उसका दामन नहीं छोडती
कुछ भी कर ले
फिर भी कहीं न कहीं
किसी न किसी
तराजू में उसे अधूरा ही कहते हैं
कब तक जीएगी ऐसे ?
आखिर कब तक ?

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